सन्त एवं सम्प्रदाय
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!प्राचीनकाल से ही राजस्थान कई प्रमुख संतों – शूरों की जन्मभूर्म रहा है। यहाँ की लोकजीवन शैली लोक सन्तों से अत्यधिक प्रभावित रही है। आज सामान्यतः भी राजस्थान का प्रत्येक परिवार किसी न किसी लोकसंत या सम्प्रदाय की विचारधारा का अनुसरण करता है। मध्यकाल राजस्थान में धार्मिक पुर्नजागरण का समय रहा है।
इस समय संत पीपा, दादूदयाल, धन्ना, मीराबाई, गवरी बाई, जाम्भोजी, लालदासजी, सुन्दर दासजी, रामचरणजी, दररयावजी, जसनाथजी, रजबजी, मावजी इत्यादि लोक सन्तों ने राजस्थान के गाँव-गाँव में धार्मिक पुर्नजागरण एवं आदर्श लोक जीवन शैली की अलख जगाई।
इन्होंने जनमानस के हृदय में ईश्वर में आस्था, सत्कायों की प्रवृत्ति, परोपकार एवं दया की भावना, प्रकृती तथा पर्यावरण प्रेम, मानव प्रेम, सहिष्णुता, मेलजोल एवं कर्मयोग की प्रवृत्ति को विकत्सित किया। लोक संतों ने हिन्दू धर्म के अभिजात्य एवं दत्लित वर्ग के मध्य खाई (भेदभाव) को कम किया।
15वीं सदी के पश्चात् राजस्थान में निर्गुण भक्ती धारा के कई संतों का उदय हुआ। इनमें जाम्भोजी, जसनाथजी,दादू एवं रामचरणजी इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं। लोकसंतों ने विभिन्न सम्प्रदायों का प्रवर्तन किया, जो आज भी जनमानस को सन्मार्ग की राह दिखा रहे हैं। राजस्थान में भक्ती आन्दोलन की दो प्रमुख विचारधाराएँ रही हैं- सगुण एवं निर्गुण ।
सगुण भक्ति की परम्परा में शैव, नाथ, शाक्त एवं वैष्णव सम्प्रदायों के रामानुज, रामानन्द, निम्बकचार्य , वल्लभाचार्य, माध्वाचार्य, भक्त कवि दुर्लभ, मीरा बाई एवं गवरी बाई महत्त्वपूर्ण हैं। निर्गुण भक्ति की परम्परा में पीपाजी, जसनाथजी, जाम्भोजी, संत दादू दयाल, प्राणनाथजी, लालदासजी, रामस्नेही संत (रामचरणजी, हररराम दासजी, रामदासजी, दररयावजी, जैमलदासजी), सुंदर दासजी, रज्जबजी, लालर्गरीजी, संतदासजी, संत धन्ना एवं संत
रैदास उल्लेखनीय हैं।
चरणदासजी एवं संत मावजी ने सगुण एवं निर्गुण दोनों भावों का मीक्षर्ण करके सहज भक्ति के मार्ग को अपनाया। इन सबके अलावा स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म पर आधारित जीवन शैली को अपनाने का उपदेश
दिया। हिन्दू धर्म के अलावा राजस्थान में मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध एवं ईसाई धर्मों के विभिन्न सम्प्रदायों के लोग मिलते हैं।
मुस्लिम दाऊदी बोहरा सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ गलियाकोट (डूंगरपुर) में है। सूफी परम्परा में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती, फखरुद्दीन एवं हमीदुद्दीन नामक
प्रसिद संत हुए हैं। शेखावाटी क्षेत्र में नरहड़ के पीर(हजरत शक्कर वाले बाबा) की खूब मान्यता है। इनका मेला जन्माष्टमी को भरता है। सिख्ख धर्म तथा डेरा सच्चा सौदा सम्प्रदाय के अनुयायी मुख्यतः राज्य के श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर एवं जयपुर जिलों में मिलते हैं।
जैन धर्म की दोनों प्रमुख शाखाओ में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर के अलावा तेरापंथ जैन सम्प्रदाय पश्चश्चमी राजस्थान में प्रसिद्ध है। इस सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य भिक्षु (भीखणजी) थे। उनकी शिष्य परम्परा में आचार्य तुलसी हुए, जिन्होंने अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात किया। प्रसिद्ध जैन संत मिर्श्रीमलजी महाराज ने जैतारण (पाली) में ‘पावन धाम’ की स्थापना की।
राजस्थान के अधिकांश बौद्ध नव बौद्ध हैं, जो डॉ. अम्बेडकर की विचारधारा से प्रभावित हैं। राज्य में बौद्धमत का प्राचीन धर्मस्थल / अवशेष विराटनगर(जयपुर) एवं कोलवी, डग (झालावाड़) में मिलते हैं। जयपुर एवं झालावाड़ जिले के इन स्थानों को ‘बुद्धा सर्किट’ के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। राजस्थान के अर्धकांश ईसाई रोमन कै थोत्तलक विचारधारा के हैं, जिनका संकेन्द्रण अजमेर में है। पारसी समुदाय के लोग जो सूर्य एवं अभि के उपासक
होते हैं, राजस्थान के बाड़मेर, अजमेर एवं उदयपुर में अल्प संख्या में मिलते हैं।
निर्गुण भग्ति धारा
संत पीपाजी
- राजस्थान में भक्ति आन्दोलन के प्रारम्भकर्ता संत पीपा का __ जन्म गागरोनगढ़ (वर्तमान झालावाड़ जिले में) के नरेश कड़ावा राव खींची के यहाँ 1425 ई. में चैत्र पूर्णिमा के दिन हुआ था। इनकी माता का नाम ‘लक्ष्मीवती’ था। इनके बचपन का नाम राजकुमार प्रताप सिंह था।
- इन्होंने रामानन्द से दीक्षा लेकर राजस्थान में निर्गुण भग्ति परम्परा का सूत्रपात किया। राजस्थान में दर्जी समुदाय के लोग पीपाजी को आराध्य देवता मानते हैं।
- बाड़मेर जिले के समदड़ी कस्बे में इनका विशाल मन्दिर स्थित है, जहाँ प्रतिवर्ष विशाल मेला भरता है। इसके अलावा गागरोन (झालावाड़) एवं मसूरिया (जोधपुर) में भी इनकी स्मृति में मेलों का आयोजन होता है।
- संत पीपा ने ‘ चिनतामनी जोग’ नामक गुटका की रचना की, जिसका लिपि काल संवत् 1868 दिया गया है। संत पीपाजी ने अपना अन्तिम समय टोंक जिले के टोडाराय सिंह ग्राम में बिताया, वहीं पर चैत्र कृष्ण नवमी को परलोक गमन हुए जो आज भी ‘पीपाजी की गुफा’ के नाम से प्रसिद्ध है।
संत धन्ना जी
- संत धन्ना का जन्म टोंक जिले के धुवन गााँव के एक जाट परिवार में 1415 ई. में हुआ। ये रामानन्द के शिष्य थे, जो बचपन से ही भगवद् भक्ति में लीन हो गये थे।
- गुरु अर्जुन देव द्वारा सम्पादित सिख्खो ‘ आदि ग्रन्थ’ में संत धन्ना द्वारा रचित चार पद संग्रहित हैं।
- संत धन्ना के उपदेशों एवं साहित्य की भाषा ब्रज मिश्रित राजस्थानी है।
संत रैदास (संत रविदास)
रामानन्द के शिष्य रैदास चमार जाति के थे। मीरा बाई भी इनसे प्रभावित थीं। इसके प्रमाण स्वरूप चित्तौड़गढ़ दुर्ग के कुंभश्याम मन्दिर परिसर में इनकी छतरी स्थित है। इन्होंने ईश्वर के निर्गुण निराकार रूप का बखान
किया। इनके उपदेश ‘रैदास की परची’ कहलाते हैं।
प्राणनाथजी एवं परनामी (प्रणामी) सम्प्रदाय
- महात्मा प्राणनाथ का जन्म गुजरात के जामनगर में हुआ था। इन्होंने गुरुनिनजानन्द से दीक्षा लेकर विभिन्न सम्प्रदायों के उत्कृष्ट मूल्यों एवं उपदेशों का समन्वय करके ‘ परनामी सम्प्रदाय’ का प्रारम्भ किया।
- परनामी लोग कृष्ण के निर्गुण स्वरूप की पूजा करते हैं। प्राणनाथजी के उपदेश’ कुजलम स्वरूप’ नामक ग्रंथ में संग्रहित हैं, जिसकी पूजा इनके अनुयायियों द्वारा की जाती है। परनामी सम्प्रदाय की प्रधान गद्दी ‘पन्ना’ (मध्यप्रदेश) में स्थित है।
- जयपुर में परनामियों (प्रणार्मयों) का एक विशाल मन्दिर राजापार्क में स्थित है। इसका सम्बोधन वाक्य ‘प्रणामजी’ है।
संतदासजी एवं गूदड़ सम्प्रदाय
महात्मा संतदासजी द्वारा प्रवर्तित निर्गुण भग्ति युक्त सम्प्रदाय ‘गूदड़ सम्प्रदाय’ कहलाया, क्योंकि संतदासजी गूदड़ी से बने वस्त्र पहनते थे। इस सम्प्रदाय की प्रधान गद्दी दांतला (भीलवाड़ा) में है।
स्वामी लालगिरी एवं अलखिया सम्प्रदाय
- 10वीं शताब्दी के प्रारम्भ में चूरू जिले के ‘सुलखिया’ गााँव में जन्मे स्वामी लालगिरी द्वारा ‘ अलख सम्प्रदाय’ का प्रर्वतन किया गया।स्वामीजी के अनुसार ईश्वर निराकार – निर्गुण है।
- इस सम्प्रदाय की प्रधान पीठ बीकानेर में है। इनके अधिकांश अनुयायी राज्य के चूरू एवं बीकानेर जिलों में मिलते हैं। इस सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रंथ ‘अलख स्तुति प्रकाश’ है।
- गलता (जयपुर) में इनकी समाधि है।
संत नवलदासजी एवं नवल सम्प्रदाय
नागौर जिले के हरसोलाव गााँव में जन्मे संत नवलदासजी ने ‘नवल सम्प्रदाय’ का प्रर्वतन किया। इनका प्रमुख मन्दिर जोधपुर में है। इनके अनुयायी जोधपुर एवं नागौर जिलों में मिलते हैं।
जाम्भोजी (गुरु जंभेश्वर) एवं विश्नोई सम्प्रदाय
- जाम्भोजी का जन्म 1451 (भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, विक्रम संवत् 1508) में जन्माष्टमी के दिन नागौर जिले के पीपासर गााँव में पँवार वशिय राजपूत ठाकुर लोहटजी के घर हुआ। इनकी माता का नाम हंसा देवी था।
- जाम्भोजी को ‘विष्णु का अवतार’ माना जाता है। इन्होंने संवत् 1542 मे 29 शिक्षाओ के आधार पर विश्नोई (20+9) सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। इन्होंने अपने सम्प्रदाय का नाम ‘प्रहलाद पंथी विश्नोई’ रखा।
- जाम्भोजी के अधिकांश अनुयायी जाट कृषक थे। जाम्भोजी के 29 नियमों एवं 120 शब्दों का संग्रह ‘जंब सागर’ में है। ‘जम्ब संहिता’ एवं ‘ विश्नोई धर्म प्रकाश’ इनके अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं।
- जाम्भोजी एक चमत्कारिक संत थे, जिन्होंने वैष्णव, जैन तथा इस्लामिक धर्मो के उपदेशों का समन्वय करके एक सार्वभौमिक पंथ (विश्नोई पंथ) का प्रर्वतन किया।
- जाम्भोजी ने अपने पंथ के प्रचार हेतु चार प्रधान शिष्यों हावली पावजी, लोहा पागल, दतानाथ एवं मालदेव को दीक्षा दी।
- जाम्भोजी कबीर से भी प्रभावित थे। वे विधवा विवाह के समर्थक थे उन्होंने मूर्तिपूजा एवं तीथा यात्रा का विरोध किया। जाम्भोजी पर्यावरण एवं जीव प्रेमी थे, इन्होंने खेजड़ी के वृक्ष का महत्व बताया, वन्यजीवों की रक्षा की बात कही।
- उनके अनुयायी (विश्नोई) आज भी हरे वृक्ष नहीं काटते तथा जीवों की रक्षा करते हैं।
- विश्लेषकों ने गुरु जंभेश्वर को ‘पयाावरण वैज्ञानिक’ कहा है क्योंकि उन्होंने सर्वप्रथम ‘पर्यावरण चेतना’ शब्द का प्रयोग वकया।
- जाम्भोजी का देहावसान 1534 ई. में ‘मुकाम तालवा गााँव’ में हुआ। यह गााँव बीकानेर जिले की नोखा तहसील में स्थित है। यहाँ पर विश्नोई सम्प्रदाय की प्रधान पीठ एवं जाम्भोजी महाराज की समाधि स्थित है।
- इस सम्प्रदाय के अन्य महत्वपूर्ण तीर्थ जाम्भा (फलौदी, जोधपुर), रामड़ावास (पीपाड़, जोधपुर) एवं जागुल(बीकानेर) हैं। मुकाम तालवा (नोखा, बीकानेर) में प्रतिवर्ष फाल्गुन अमावस्या को मेला भरता है।
- जाम्भोजी विक्रम संवत् 1593 में बीकानेर के निकट लालासर के जंगलों में ब्रह्मलीन हुए, ऐसा माना जाता है।
संत दादूदयाल एवं दादू पंथ
- संत दादूदयाल का जन्म चैत्र शुक्ल अष्टमी 1544 ई. में अहमदाबाद में हुआ था। एक जनश्रुति के अनुसार ये यहाँ के नागर ब्राह्मण लोदीरामजी को साबरमती नदी में बहते हुए संदूक में मिले थे ।
- कुछ विद्वान इन्हें मोची या धुनिया मुसलमान जाति का बताते हैं। कहा जाता है कि गुरु वृद्धानन्द ने 11 वर्ष की उम्र में इन्हें उपदेश दिया। वृद्धानन्द कबीर के शिष्य थे।
- 19 वर्ष की उम्र में दादूदयाल ने सांभर (राजस्थान) आकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार प्रारम्भ किया।
- दादू ने कविताओ के माध्यम से धार्मिक आडम्बरों का खण्डन किया। इनके उपदेश ‘दादूवाणी’ कहलाते हैं।
- दादूवाणी’ में ढूंढाड़ी बोली (राजस्थानी भाषा) में लगभग 5000 दोहे संकलित हैं।
- दादूदयाल ने 1660 ई. में नरायणा (जयपुर) के निकट भैराणा पहाड़ी पर समाधि ली, यह स्थान ‘दादूखोल’ कहलाता है।
- ऐसा माना जाता है कि संत दादूदयाल ने फतेहपुर सीकरी में अकबर से भेंट की।
- संत दादूदयाल ने ‘दादूपंथ’ का प्रवर्तन किया, जिसकी प्रधान गद्दी जयपुर जिले की सांभर तहसील के नरैना(नरायणा) गााँव में है। यहाँ पर शमी वृक्ष (खेजड़ा) के नीचे इन्होंने तपस्या की। इनके आराधना केन्द्र ‘दादूद्वारा’ कहलाते हैं।
- दादूदयालजी की शिष्य परम्परा में गरीबदासजी, मिस्कीनदासजी, बखनाजी, रज्जबजी, सुंदरदासजी, संतदासजी, माधोदासजी एवं जगन्नाथजी प्रसिद्ध हुए।
- दादू पंथ में निर्गुण-निराकार – निरंजन ब्रह्म’ की आराधना की जाती है।
- दादूपंतथो के सत्संग स्थल को ‘अलख दरीबा’ कहते हैं।
- दादूपंथी संतों के पाँच मत हैं नागा, खालसा, विरि, उतरदे या स्थानधारी तथा खाकी।
- दादूपंथी साधुओ के शवों को न तो जलाया जाता है और न ही दफनाया जाता है, बलकि उन्हें पशु-पक्षियों को खाने के लिए जंगल में छोड़ दिया जाता है।
- दादूजी की शिष्य परम्परा में 152 प्रमुख शिष्य हुए हैं, इनमें से 52 शिष्यों ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर दादूद्वारों की स्थापना की तथा दादूपंथ के 52 स्तम्भ कहलाये।
- दादूजी के शिष्यों में सुंदर दासजी एवं रज्जबजी सवाार्धक प्रसिद्ध हुए।
- सुंदर दासजी का जन्म 1596 ई. में दौसा के एक खण्डेलवाल वैश्य परिवार में हुआ।
- इनके पिता का नाम चोखाजी (परमानंद) व माता का नाम सती देवी था।
- इन्होंने दादूदयाल से दीक्षा लेकर दादूपंथ का प्रचारप्रसार किया तथा कई रचनाए लिखीं।
- इनके प्रमुख ग्रंथ – सुन्दरविलास, सुन्दरसार, सुन्दर ग्रंथावली एवं ज्ञान समुद्र हैं। संत सुन्दर दासजी की मृत्यु सांगानेर में हुई।
- इन्होंने दादूपंथ में ‘नागा’ मत का प्रवर्तन किया।
- संत रज्जबजी का जन्म 16वीं सदी (वि.सं. 1624) में सांगानेर में हुआ।
- ऐसा माना जाता है कि जब रज्जबजी दूल्हा बनकर विवाह करने जा रहे थे, तभी मागा में उन्होंने दादूजी के उपदेश सुने। इन उपदेशों से वे इतने प्रभावित हुए कि जीवन भर दूल्हे के वेश में रहकर दादूपंथ का प्रचार किया।
- रज्जबजी की प्रधान पीठसांगानेर में है। ‘ रज्जबवाणी’ एवं ‘सर्वगी’ इनके प्रमुख ग्रंथ हैं। इन्होंने सांगानेर में ही अपनी देह त्यागी थी।
रामस्नेही सम्प्रदाय
- यह वैष्णव धर्म की एक प्रमुख निर्गुण भग्ति उपासक विचारधारा है। उतर भारत में भग्ति आंदोलन के प्रमुख संत रामानन्द के चार शिष्यों ने राजस्थान में भिन्न-भिन्न रामस्नेही सम्प्रदाय का प्रारम्भ किया।
- इनकी प्रधान गद्दी शाहपुरा (भीलवाड़ा) में है जहाँ पर फूलडोल महोत्सव मनाया जाता है। (चैत्र कृ ष्ण 1 से 5) रामस्नेही साधुगुलाबी रंग की पोशाक पहनते हैं तथा दाढ़ी-मूंछ नहीं रखते।
- रामस्नेही सम्प्रदाय में मूर्तिपूजा निषिद्ध है। रामस्नेहियों की विचारधारा एवं उपदेश नैतिक आचरण, सत्यनिष्ठा एवं धार्मिक अनुशासन पर आधारित हैं।
- इनके आराधना स्थल को ‘रामद्वारा’ कहते हैं। रामस्नेही साधु गुलाबी वस्त्र पहनते हैं।
- राजस्थान में रामस्नेहियों की चार प्रमुख पीठें रैण (नागौर), शाहपुरा (भीलवाड़ा), सिहथल (बीकानेर) एवं खेड़ापा (जोधपुर) हैं, जिनकी स्थापना रामस्नेही संतों क्रमशः दरियावजी, रामचरणजी, हरिरामदासजी एवं रामदासजी ने की।
(i) संत दरियावजी एवं रैण शाखा
- संत दरियावजी का जन्म 1676 ई. में जैतारण (पाली) में जन्माष्टमी के दिन मानजी धुनिया एवं गीगण बाई के घर पर हुआ। इनके गुरु पेमदासजी थे।
- स्वयं दरियावजी ने अपनी ‘वाणी’ में अपने को धुनिया मुसलमान बताया है।
- इन्होंने काशी जाकर पण्डित स्वरूपानन्द से शास्त्र ज्ञान की प्राप्त किया।
- इन्होंने 1712 ई. में रैण में गुरु पेमदास से ‘राम’ नाम की दीक्षा ली।
- रैण गााँव वर्तमान में नागौर जिले में मेड़ता के समीप स्थित है, यहाँ’ दरिया पंथ’ की प्रधान गद्दी स्थित है। दरियावजी ने कहा कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी राम नाम का स्मरण तथा गुरु भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्त की जा सकती है। इन्होंने ‘ राम ‘ शब्द के ‘रा’ को ‘राम’ तथा ‘म’ को ‘ मुहिद’ मानकर हिन्दू-मुस्लिम समन्वय को प्रोत्साहित किया।
(ii) संत रामचरणजी एवं शाहपुरा शाखा
- रामस्नेहियों में रामचरणजी सबसे लोकप्रिय संत हुए इन्होंने शाहपुरा (भीलवाड़ा) में रामस्नेही सम्प्रदाय की गद्दी स्थापित की।
- रामचरणजी का जन्म टोंक जिले के सोडा गााँव में 1720 ई. में बखतारामजी विजयवर्गीय के घर हुआ। इनके बचपन का नाम ‘रामकिशन’ था।
- रामचरणजी ने मेवाड़ के दांतड़ा में संत कृपाराम से दीक्षा ली। वहाँ से उन्होंने भीलवाड़ा तथा कुहाड़ा हुए अन्त होते में जाकर रामस्नेही सम्प्रदाय की पीठ स्थापित शाहपुरा की।
- इनके उपदेश ‘अनभैवाणी’ नामक ग्रंथ में संकलित हैं। इन्होंने रामधुनी एवं भजन र्कीतन को राम की आराधना का मार्ग बताया।
(iii) हरिराम दासजी एवं सिहथल शाखा
सिहथल (बीकानेर) में भागचन्दजी जोशी के घर जन्मे हरिराम दासजी ने यहाँ पर रामस्नेही सम्प्रदाय की गद्दी स्थापित की। इन्होंने गुरु जैमलदासजी से दीक्षा ली। वैसे तो सिहथल शाखा का आदि आचार्य जैमलदासजी को माना जाता है तथापि हरिराम दासजी ने इस शाखा को लोकप्रिय बनाया। हरिराम दासजी की प्रमुख कति ‘निसानी’ है तथा इस शाखा के साधु ‘प्राणायाम’ को ईश्वर कीआराधना का मागा मानते हैं।
(iv) संत रामदासजी एवं खैड़ापा शाखा
संत रामदासजी का जन्म जोधपुर जिले के भीकमकोर गाँव में शादुालजी एवं अणमी बाई के घर में 1726 ई. में हुआ। इन्होंने सिहथल के हरिराम दासजी से दीक्षा लेकर खैड़ापा (जोधपुर) में रामस्नेही सम्प्रदाय की गद्दी स्थापित की। रामदास के पुत्र एवं शिष्य दयाल दासजी के समय में इस सम्प्रदाय के साधु पाँच मतों में विभाजित हो गये – विरक्त, विदेही, परमहंस, प्रवृत्ति एवं गृहस्थी।
संत लालदासजी एवं लालदासी सम्प्रदाय
- मध्यकाल में मेवात क्षेत्र में धार्मिक पुनर्जागरण का कार्य प्रसिद्ध संत लालदासजी ने किया। इनका जन्म धौली दूव गााँव (अलवर) में 1540 ई. में हुआ। इनके पिता का नाम चााँदमल जी एवं माता का नाम समदा बाई था।
- मेव जाति में जन्मे लालदासजी ने मुस्लिम संत गद्दन चिश्ती से दीक्षा लेकर नीर्गुाण भक्ति का उपदेश दिया।
- इनका देहान्त भरतपुर जिले के नगला गााँव में हुआ,यहीं पर लालदासी सम्प्रदाय की प्रधान पीठ स्थित है। इनकी समार्ध शेरपुर (अलवर) में स्थित है।
- इन्होंने मेवात क्षेत्र में‘ हिन्दू-मुस्लिम एकता’ को बढ़ावा दिया। लालदासी सम्प्रदाय के साधु पुरुषाथी होते हैं तथा स्वयं कमाकर खाते हैं।
- अलवर एवं भरतपुर जिलों में मेव जाति के लोग इनके अनुयायी हैं। लालदासजी के उपदेश ‘लालदास की चेतावणियााँ’ में संग्रहित हैं।
सतं हररदासजी एव निरंजनी सम्प्रदाय
- डीडवाना (नागौर) के निकट कापड़ोद गाँव में जन्मे हरिसिंह सांखला प्रारम्भ में डकैत थे।
- एक संन्यासी के उपदेश सुनने के बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ तथा हरिदासजी के नाम से प्रसिद्ध हुए।
- इन्होंने निर्गुण भग्ति का उपदेश देकर ‘निरंजनी सम्प्रदाय’ चलाया। इनके उपदेश ‘मंत्र राजप्रकाश’ एवं ‘हरिपुरुषजी की वाणी’ में संग्रहित हैं। अन्य ग्रंथ – भक्त विरदावली, भरथरी संवाद।
- नरंजनी सम्प्रदाय की प्रधानपीठ गाढ़ा (डीडवाना,नागौर) में स्थित है। इस सम्प्रदाय में परमात्मा को ‘अलख निरंजन’ एवं ‘हरि निरंजन’ कहा जाता है। निरंजनी साधुदो प्रकार के होते हैं- निहंग एवं घरबारी।
2) सगुण भक्ति धारा
भगवान शिव की आराधना करने वाले ‘शैव’ कहलाते हैं। शिव की पूजा आदिकाल से होती आ रही है। विभिन्न प्राचीन सभ्यताओ में शिव के विभिन्न रूपों की पूजा के अवशेष मिले हैं। मध्यकाल में भक्ति आंदोलन से पूर्व तक शैव सम्प्रदाय (धर्म) के चार मत प्रचलित थे—कापालिक, पाशुपत, लिंगायत एवं काश्मीरक। इनमें से प्रथम दो मतों का प्रभाव राजस्थान में भी रहा।
कापालिक सम्प्रदाय में ‘भैरव’ की पूजा शिव के अवतार के रूप में की जाती है। इस सम्प्रदाय के साधु तांत्रिक होते हैं।
ये साधु गले में मुण्डमाल पहनते हैं, सुरापान करते हैं तथा इनमें नरबलि का नैवेद्य भी प्रचलित है। कापालिक साधु सामान्यतः श्मशान में रहते हैं। कापालिक साधुओ को ‘अघोरी बाबा’ भी कहा जाता है। पाशपुत सम्प्रदाय के प्रवर्तक दण्डधारी लकुलीश को माना जाता है।
इस सम्प्रदाय के साधु भगवान शिव की पूजा दिन में अनेक बार करते हैं तथा हाथ में दण्ड धारण करते हैं। हर्ष पर्वत (सीकर) पर मिले 975 ई. के एक शिलालेख में इस सम्प्रदाय के साधु गुरु विशावरूप का वर्णन मिलता है।मध्यकाल के पश्चात् राजस्थान में शैव मत के विभिन्न सम्प्रदायों का उदय हुआ।
इनमें नाथ, नागा, निहंग, सिद्ध, खाकी एवं जसनाथी प्रमुख हैं। वैसे तो इस मत का प्रचलन सम्पूणा राजस्थान में है, तथापि मेवाड़ क्षेत्र में हारीत ऋषि के प्रभाव से एकलिग जी’ मेवाड़ के अर्धपित’ माने जाते हैं। उनके शिष्यों को 17वीं शताब्दी तक मेवाड़ के शासकों ने राजगुरु का सम्मान दिया। बाद में मेवाड़ के महाराणा वैष्णव मत के प्रभाव में आ गये।
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