(Rajasthan’s Folk-Life : Customs, Traditions, Dresses, Ornaments & Food)
राजस्थानी रीति रिवाज
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!राजस्थान राज्य अपनी समृद्ध परम्पराओ एवं पारम्पररक रीति- रिवाजों के लिए पहचाना जाता है। राजस्थानी लोगों के जीवन में रीति- रिवाज व संस्कारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राजस्थान के रीति रिवाज या संस्कारों को चार भागों में बाँटा जा सकता है – (1) जन्म से संबंधित रीति रिवाज / संस्कार; (2) विवाह से संबंधित रीति रिवाज / संस्कार; (3) शोक या गमी की रस्में, (4) अन्य रीति रिवाज /प्रथाएँ|
जन्म से संबंधित रीति-रिवाज/संस्कार
- गर्भाधान रीति रिवाज – किसी स्त्री के गर्भाधान होने की जानकारी होने पर घर में उत्सव आयोजित किया जाता है, इस संस्कार के माध्यम से होने वाली संतान के यशस्वी एवं तेजस्वी होने की कामना की जाती है। जिसे गर्भाधान रीति रिवाज कहा जाता है ।
- पुंसवन रीति रिवाज – यह संस्कार गर्भधारण के बाद गर्भस्य शिशु को पुत्र रूप देने के लिए किया जाता है।
- सीमन्तोन्नयन रीति रिवाज – इसमें बच्चे की गर्भ में सुरक्षित स्थिति बनाये रखने की कामना की जाती है। इसका उद्देश्य गर्भवती स्त्री को अमंगलकारी शक्तियों से बचाना है।
- जातकर्म रीति रिवाज – यह शिशु जन्म के पश्चचात किया जाता है जिसमें पिता द्वारा अपनी चौथी अँगुली और एक सोने की शलाका से शिशु को मधु और घृत चटाया जाता है।
- आठवाँ पूजन रीति रिवाज- गर्भ के सात महीने पूर्ण होने पर इष्ट देवता की पूजा की जाती है तथा घर पर प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है।
- जन्मोत्सव (रीति रिवाज) – बच्चे के जन्म पर होने वाले इस संस्कार में घर की बुजुर्ग महिला या पुरुष द्वारा बच्चे को जन्मघुट्टी दी जाती है। लड़का होने पर चाँदी के पात्र से काँसे की थाली बजाई जाती है।
- छठीं / छठ पूजन रीति रिवाज – बालक जब छः दिन का होता है तो रात्री के समय पूजा की थाली सजाई जाती है व घी का दीपक जलाकर कुमकुम में चाँदी की सलाई रख दी जाती है। इसके पीछे मान्यता है वक इस दिन विधाता बालक का भाग्य लिखने आता है।
- आख्या रीति रिवाज – बच्चे के जन्म के आठवें दिन कुल की समस्त कन्याओ को घर पर बुलाया जाता है जो बालक को सांथिया (स्वस्तिक) भेंट करती हैं।
- कुआँ पुजन रीति रिवाज – बालक के जन्म से 21वें या 30वें हदन जच्चा सजधज कर कुएँ पर जाती है व कुएँ का पूजन करती है।
- नामकरण रीति रिवाज – बच्चे के जन्म के बाद सामान्यत सवा महीने बाद नामकरण संस्कार किया जाता है। इसमें जन्म कुण्डली के अनुसार पण्डित बच्चे का नाम रखता है व गुड़ बाँटा जाता है।
- निष्क्रमण रीति रिवाज – जन्म के पश्चात लगभग 4 माह की आयु में यह संस्कार किया जाता है जिसमें बच्चे को पहली बार घर से निकाला जाता है।
- अन्नप्राशन रीति रिवाज– लगभग छः मास पश्चात यह संस्कार किया जाता है। इसमें शिशु को प्रथम बार अपनी माता के दूध के अलावा अन्न प्रदान किया जाता है।
- चूडाकर्म (जडूला या मु ण्डन रीति रिवाज) – बालक के दो या तीन वर्ष हो जाने पर अपने इष्ट देव के स्थान या तालाब की पाल पर बच्चे के बाल काटे जाते हैं। इस संस्कार को मुण्डन संस्कार या जडूला कहा जाता है। मारवाड़ छेत्र में इसे जातर उतरना कहते हैं।
- यज्ञोपवित या जनेऊ रीति रिवाज– बालक सामान्यतया 10 या 12 वर्ष का होने पर सामान्यत ब्राह्मण परिवारों में बालक को यज्ञोपवित धारण करवाया जाता है।
विवाह से सम्बन्धित रीति रिवाज/संस्कार
- सगाई – विवाह सम्बध के लिए लड़के वालों की ओर से लड़की को रोकना या लड़की वालों की ओर से लड़का रोकना सगाई कहा जाता है। शेखावाटी एवं उत्तरी राजस्थान में संगाई से पर्व’ रोका’ भी होता है राजस्थान में इसे सगपण या टेवालिया कहते हैं।
- टीका – वधू पक्ष की ओर से वर को तिलक करके भेंट इत्यादि देना टीका कहलाता है। नकद टीका देना कुप्रथा माना जाता है।
- लग्न – पत्रिका – वर-वधू पक्षो द्वारा तय की गई तिथी को कन्या पक्ष द्वारा रंग-बिरंगे कागज में पण्डित द्वारा लिखित लग्न पत्रिका नारियल के साथ वर पक्ष को भेजी जाती है जिसमें फेरों का समय लिखा होता है व बारात लेकर आने का निमंत्रण होता है।
- कुंकुम पत्रिका (निमंत्रण पत्र) – विवाह के कुछ दिन पहले वर व वधू के माता -पिता द्वारा अपने सगे- सम्बन्धियों को कुंकुम व केसर से सुसजित निमंत्रण पत्र भेजे जाते है जिसमें विवाह कार्यक्रम का ब्यौरा होता है। पहली कुंकुम पत्रिका गणशे जी को भजी जाती है मारवाड़ में इसे ‘कंकूपत्री’ कहा जाता है।
- इकताई – वर व वधू के कपड़ों का नाप दजी मुहूर्त से लेता है। फलस्वरूप दर्जी को फलस्वरूप गुड व श्रीफल दिया जाता है। उसे इकाई कहते हैं।
- पाट बैठना / बान बैठना – लग्न पत्रिका पहँचने पर वर पक्ष के द्वारा वर को चौकी (बाजोट) पर बैठाकर लग्न पत्रिका व नाररयल का पूजन किया जाता है, स्त्रियों द्वारा बाजोटा गीत गाए जाते हैं। बरी (भरी) पड़ला – वर पक्ष वाले वधू के लिए जो कपड़े, गहने, शगुन, जेवर आदि बनवाते हैं उन्हें बरी पड़ला कहा जाता है। यह बरी बारात के स्वागत के पश्चात ‘ पड़जान’ पर दिखाकर वधू पक्ष को दी जाती है।
- विनायक पूजन – पाट बैठने के पश्चात कुम्हार या सुधार के घर से गणेश प्रतिमा गाजे-बाजे के साथ मंगल गीत गाते हुए घर लाकर स्थापित की जाती है व उसका पूजन किया जाता है।
- काँकन डोर – विवाह के दो दीन पूर्व मौली के धागे में तांबे, लोहा, लवंग व कौड़ी को बाँधकर सात गाँठें लगाई जाती हैं, इन्हें काँकन डोर कहा जाता है। यह वर व वधू के दाहने हाथ में बाँधे जाती हैं व मादलिया गीत गाए जाते हैं।
- बिंदोली (बन्दोली) – विवाह के एक दिन पूर्व वर व वधू की बिंदोली निकाली जाती है जिसमें वर या वधू को घोड़े पर बिठाकर पूरे मोहल्ले में घुमाया जाता है। औरते मंगल गीत गाती साथ चलती हैं, साथी व सहेलियाँ नृत्य करती हैं। प्रीतिभोज भी रखा जाता है। इसे ‘महारात’ भी कहा जाता है। बारात – पूर्व निर्धारित समय व तिथि के दिन वर को सुसजित करके बारात लेकर वधू के घर जाते हैं।
- सामेला (मधुपर्क) – दूल्हे के वधू के घर पहँचने पर वधू पक्ष की ओर से कलश में नारियल रखकर स्वागत किया जाता सामेला या मधुपर्क कहते हैं। इसमें स्त्रिया सामेला गीत गाती है।
- तोरण मारना – दूल्हा वधू के घर में प्रवेश करते समय दरवाजे पर लगे तोरण को घोड़े पर चढ़कर तलवार से सात बार मारता है, इसे ‘तोरण मारणा’ कहा जाता है।
- हथलेवा (पाणिग्रहण) – चवरी में बैठने के बाद वधू का हाथ वर के हाथ में दिया जाता है, इसे ‘हथलेवा’ कहा जािा है। • फेरे – अग्नि के समक्ष जीवनपर्यन्त साथ निभाने के वादे के साथ फेरे लिए जाते हैं।
- कन्यादान – विवाह में कन्या को उनके माता या पिता द्वारा वर को सौंपने की रस्म कन्यादान कहलाता है। अन्य सगे-सम्बन्धियों द्वारा दी जाने वाली भेंट इत्यादि भी कन्यादान कहलाती है।
- कन्यावल – वर-वधू के परिजनों द्वारा कन्यादान के पश्चात उपवास खोलना।
- पहरावणी (रंगबरी) – बारात के विदा होते समय वधू पक्ष की ओर से दी गई प्रत्येक बारातियों को भेंट या उपहार को पहरावणी कहा जाता है।
- गौना / मुकलावा/ औणा – बालिग होने पर विवाह के समय वधू को वर के घर भेजने की रस्म को गौना या मूकलावा कहलाता हैं।
- बढ़ार – विवाह के दूसरे दीन वर पक्ष की ओर से प्रीतिभोज देने का रीति रिवाज होता है उसे बढ़ार का भोज कहा जाता है।
शोक या गमी की रस्मे
- बैकुण्ठी – मृत व्यक्ति को श्मशान घाट में ले जाने हेतु बनी लकड़ी को शैया को बैकुण्ठी कहा जाता है।
- बखेर या उछाल-किसी व्यक्ति की मृत्यु पर उसकी बैकुण्ठी के पीछे कौडिया या रुपये पैसे (लसक्के) उछाले जाते हैं उसे बखेर’ कहते हैं।
- दण्डोत – मृत व्यक्ति की बैकुण्ठी के आगे उसके रिश्तेदारों द्वारा किया गया प्रणाम दण्डोत कहा जाता है।
- आधेटा (आधा रास्ता) – घर से आधी दूरी तय करने के बाद बैकुण्ठी की दिशा परिवर्तन करना ‘आधेटा’ कहा जाता है।
- अंत्येष्टी – शव का दाह संस्कार करने की रस्म को अंत्येष्टी कहा जाता है।
- पानीवाड़ा – किसी व्यक्ति की मृत्यु के समय पर सब लोग इकट्ठे होकर स्नान करके मृतक पुरुष के परिवारजनों को सांत्वना देते हैं। इस प्रकार के स्नान को पानीवाड़ा कहते हैं ।
- सांतरवाड़ा – मृत्यु होने के बारहवें दीन के समय में गमी के घर पर लोगों का आना व सांत्वना देना सांतरवाड़ा कहलाता है।
- फूल चुनना या फूल एकत्र करना – दाह संस्कार केतीसरे दीन मृत व्यक्ति की हडीयाँ व दांत आदि को लेकर कुल्हड़ में एकत्रित करने की रस्म को फूल चुनना कहते हैं। इसे हरिद्वार व पुष्कर में विसर्जित कर दिया जाता है।
- तीया/चौथा – मृत्यु के तीसरे / चौथे दीन रिश्तेदारों व मित्रों द्वारा शोकाकुल परिवार को सात्वंना देने के लिए बैठक की जाती है। तथा श्मशान को पानी डालकर ठण्डा किया जाता है। मौसर या नुक्ता-मृत्यु के बारहवे दीन सम्बन्धियों, ब्राह्मणों तथा गाँव वालों को भोजन करवाया जाता है, इसे ‘मृत्यु भोज’ भी कहते हैं। मौसर पर गरुड़ पराण का पाठ किया जाता है।
- औसर – व्यक्ति द्वारा जीवित अवस्था में ही स्वयं के लिए किया गया मृत्यु भोज औसर’ कहलाता है।
- पगड़ी या पाग बाँधवाना – मौसर वाले दीन मृत व्यक्ति के ज्येष्ठ पुत्र को पगड़ी बाँधवाकर उत्तराक्तधकारी घोषित करने की रस्म पगड़ी कहलाती है। कहीं पर समस्त विवाहहिक पुत्र-पौत्रों को पगड़ी बँधवाई जाती है।
अन्य रीति-ररवाज/प्रथाएँ
- नाता(नातरा) प्रथा- पत्नी अपने पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ रहने लग जाती है। यह प्रथा सामान्यत आदिवासी एवं अन्य जातियों में पाई जाती है।
- विधवा विवाह – स्त्री के पति की मौत होने के बाद अन्य पुरुष दूसरा विवाह करना विधवा विवाह कहलाता है, इसे नितरा भी कहा जाता है।
- डावरिया प्रथा – राजा एवं महाराजाओ व सामंतो की लड़की की शादी में उनके साथ दहेज के रूप में अन्य कुँवारी कन्याएँ दी जाती थीं, इसे ‘ डावरिया’ कहा जाता था।
- जौहर प्रथा – युद्ध में जीत की आशा समाप्त होने पर अपने सतीत्व की रक्षा हेतु अपने आपको अग्नि में जला देना जौहर करना कहलाता था।
- केसरिया करना – राजपूत वीर योद्धाओ द्वारा केसरिया वस्त्र धारण करके शत्रु पर भुखे शेर की तरह टूट पड़ना व शत्रु को मौत के घाट उतारकर या खुद शहीद हो जाना केसरिया करना कहलाता था।
- सती प्रथा – पति की मृत्यु पर पत्नी का उसकी लास के साथ जलकर मौत का वरण करना सती प्रथा कहलाता था।
- अनुमरण – पति की मृत्यु किसी अन्य जगह होने पर उसके किसी प्रतीक चीह्न के साथ उसकी पत्नी का चितारोहण करना अनुमरण कहलाता है।
- समाधि प्रथा – किसी सिद्ध पुरुष अथवा साधु -महात्मा द्वारा मृत्यु को वरण करने के लिए जल में बैठकर प्राण त्यागना (जल समाधि) या फिर जमीन में खड्डा खोदकर उसमें बैठकर प्राण त्यागना (भू समाधि) कहलाती है।
- डाकन प्रथा – राजस्थान की जनजातियों में स्त्री पर डाकन (डाकन) होने का आरोप लगाकर उसे मार डालने की प्रथा थी।
- कोथला – इस रिवाज के अनुसार बेटी का पिता अपने सम्बन्धियों को बुलाकर बेटी तथा जमाई को उपहार देता है।
- कूकड़ी की रस्म – आदिवासि यों में विशेषत सांसी जनजाति में प्रचलित प्रथा जिसमें शादी होने पर युवती को अपनी चारित्रत्क पवित्रता की परीक्षा देनी होती है।
- रियाण (अमल) – मारवाड़ में ‘रियाण’ का अर्थ सभा होती है जिसमें अफीम गालने और एक-दूसरे को प्रदान करने की प्रथा है।
क्र.स. | कुप्रथा | रोक लगाने का वर्ष | सर्वप्रथम रोक लगाने वाली रियासत | विशेष विवरण |
01 | सती प्रथा | 1882 | बूंदी | 1. मध्यकाल में मुहम्मद तुगलक ने इस प्रथा को रोकने का प्रयास किया था। 2. राजा राममोहन राय के प्रयासों से 1829 ई. में लॉर्ड विलयम बैंटिक ने सरकारी आदेश से रोक लगाई। 3. 4 सितम्बर, 1987 को सीकर जिले के दिवराला गाँव में रूपकंवर नामक राजपूत स्त्री अपने पति मालसिह शेखावत की मृत्यु होने पर सती हुई। इसके बाद राजस्थान में राजस्थान सती निवारण अध्यादेश, 1987 लागू कर इस प्रथा पर रोक लगाई। |
2. | दास / डावडिया प्रथा | 1832 | कोटा व बूंदी | सन् 1832 में विलियम बैंटीक ने दास प्रथा पर रोक लगाई। |
3. | कन्या वध कुप्रथा | 1833 ,1834 | कोटा ,बूंदी | लॉर्ड विलियम बैंटीक एवं हाड़ौती के पॉलिटीकल एजेंट विलकंसन के प्रयासों से इसको रोकने हेतु प्रयास कोटा महाराव रामसिहं ने किया । |
4. | समाधि प्रथा | 1844 | जयपुर | इसे पूर्ण रूप से समाप्त करने हेतु 1861 में एक कानून पारित किया गया, पॉलिटिकल एजेन्ट लुडलो के प्रयासों से। |
5. | डाकन प्रथा | 1853 | मेवाड़ | महाराणा स्वरूपसिह के समय में मेवाड़ भील कोर के कमाण्डेन्ट जे. सी. ब्रुक ने इस प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया। |
6. | बाल विवाह कु प्रथा | 1885 | जोधपुर | 1. जोधपुर रियासत के प्रधानमंत्री सर प्रताप सिंह के प्रयासों से। |
राजस्थानी वेशभूषा
वेश-भूषा किसी भी समाज के जीवन आधारों, परम्पराओ, रीति- रिवाज, भौगोलिक दशा इत्यादि पर आधारित होती है। राजस्थान की वेश-भूषा प्राचीनता और विविधता की झलक लिए हुए है, इसलिए कहा
जाता है रंगीलो राजस्थान।
पुरुषों की वेशभूषा
पगड़ी
- पगड़ी सर पर बाँधा जाने वाला वस्त्र है। यह आन व
बान की प्रतीक भी होती है - बड़ों के सामने बिना पगड़ी धारण किए जाना
अशोभनीय माना जाता है। - पगड़ी को राजस्थान के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नाम से जानते हैं, जैसे—पाग, पोत्या, फैंटा, साफा आहद। विशेषत मेवाड़ क्षेत्र की पगड़ी प्रसिध्द है।
- मेवाड़ के विभिन्न सामन्तों द्वारा पहनी जाने वाली पगड़ियाँ
4.1 चूड़ावत शाही– कपड़े की इमली तीन पासों तथा सिर पर जरी वाली पगड़ी जो सलूम्बर ठिकाने (मेवाड़) में प्रचलित थी।
4.2 जसवन्तशाही – देवगढ़ (प्रतापगढ़) के सामन्तों द्वारा पहनी जाने वाली पगड़ी |
4.3 मांडपशाही पगड़ी – कानोड़ (उदयपुर) में पहनी जाने वाली पगड़ी।
4.4 राठौड़ी पगड़ी—बदनोर (भीलवाड़ा) जागीर में बाँधी जाने वाली पगड़ी |
4.5 मानशाही पगड़ी – भैंसरोड़गढ़ (चित्तौड़गढ़) की पगड़ी।
हमीर शाही बनेड़ा (भीलवाड़ा) की पगड़ी |
क्र.स. | पगड़ी का प्रकार | विशेषताए | संबंधित शासक |
1. | उदय शाही | खंग एक तरफ जिसमें जरी लगी रहती है तथा तीन पछेवड़ियाँ और चन्द्रमा बाँधा जाता है | महाराणा उदयसिंह , महाराणा अमर सिंह द्वितीय |
2. | अमर शाही | पीछे एक पासा और बीच में जरी रहती है। दो पछेवड़ियाँ बाँधी जाती हैं तथा खंग में किरण व मोतियों की लड़ी लगाई जाती है। | महाराणा अमरसिंह द्वितीय |
3. | अरशी शाही | खंग ऊपर निकला हुआ तीखा रूईदार होता है। तीन पछेवड़ियाँ तथा जड़ाऊ जेवर आहद बाँधे जाते है। | अमर सिंह |
4. | भीम शाही | पगड़ी का बंधेज शुरू हुआ, खंग मोटा व तोते की नाक सा निकला हुआ एक तरफ झुका हुआ होता था। | महाराणा भीम सिंह |
5. | स्वरूप शाही | यह रूई की दो इमलियों पर बाँधी जाती है। खंग एवं बीच के पासे में जरी लगती है। | महाराणा स्वरूप सिंह |
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